GENITAL WARTS (CONDYLOMA ACUMINATUM)
-DR. HARISH KAPOOR
M.S.(Ay)
यह एक Sexually transmitted infection है जो Human Papilloma Virus (HPV) के infection से मनुष्यों में होती है ।
Sexually transmitted होने के बावजूद इसमें यह आवश्यक नहीं कि full intercourse ही ज़रूरी हो, skin to skin contacts से भी infection spread कर सकता है ।इसका मुख्य कारण unusual (Anal sex ,Oral sex) तथा unprotected sex (Vaginal sex) होता है जिसकी वजह से Anus और उसके आसपास की skin ,Vagina और Penis के आसपास की skin तथा oral sex करने वालों में कभी-कभी मुँह के आसपास की skin में यह warts develop हो जाते हैं ।इस papilloma virus के लगभग 100 strains पाये जाते हैं पर यह रोग मुख्यतः strain number 6 & 11 (causes mostly non cancerous warts) and strain number 16 & 18 (rare but produces mostly cancerous warts ) के कारण होता है ।
ये warts कभी smooth और flatten shape में और कभी गोभी के फूल के समान आकृति वाले होते हैं ।अधिकांश warts में छोटी सी जड़ या stalk भी प्रायः मौजूद होता है ।अधिकांशतः यह एक समूह (colony)की तरह विकसित होते हैं और काफ़ी विस्तृत area में फैले हुए होते हैं ।मुख्यतः ये Anus ,Vagina,Labia,Penis और Scrotum के आसपास पाये जाते हैं ।ये warts सामान्यतः painless होते हैं पर sexual intercourse के समय कभी-कभी painful हो सकते हैं तथा इनसे Bleeding भी हो सकती है ।
आधुनिक मतानुसार इनके Prevention के लिए Sex के दौरान Condoms का उपयोग करना चाहिए परन्तु इससे पूर्णतः prevention possible नहीं है ।इसके prevention के लिए कई देशों में Gardasil नामक एक Vaccine किशोर युवक युवतियों को तथा अन्य vulnerable males और females को लगाई जाती है,जिसकी success rate 70% तक मानी जाती है ।
आधुनिक चिकित्सक इसमें चिकित्सा के लिए कुछ local application creams का प्रयोग करते हैं और अधिकांश Surgery, Crayon Surgery या Laser Surgery की सिफ़ारिश करते हैं ।
*आयुर्वेद मतानुसार *
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आयुर्वेद के चिकित्सक सामान्यतः इसकी तुलना *चर्मकील * नामक व्याधि से करते हैं और कुछ इन्हें त्वचा का *अर्श * मानते हैं पर यह निश्चित ही गुदा के अर्शों से भिन्न होते हैं।आयुर्वेद के कई ग्रंथों में योन्यार्श (योनि अर्श) और लिंगार्श (लिंग अर्श) का विवरण मिलता है जो संभवतः इसी व्याधि का स्थानिक रूप है ।
आयुर्वेद मतानुसार यह व्याधि त्रिदोष वैषम्य के कारण उत्पन्न होती है और किसी एक दोष की इसमें प्रधानता होती है ।ये विकृत दोष रक्त और मांस धातु में विकार उत्पन्न करके विभिन्न कील जैसी आकृति वाले मांसार्बुद पैदा कर देते हैं ।कई बार यह मांसार्बुद दुर्गंध युक्त होते हैं और कुछ के साथ दुर्गंधित पिच्छिल स्राव भी देखने को मिलता है ।प्रायः वात दोष की प्रधानता वाले चर्मकीलों में रूक्षता और सूचिका वेधनवत दर्द (pricking pain) ,कफ दोष की प्रधानता वालों में त्वचा के वर्ण वाले ठोस मांसार्बुद जैसे चर्मकील मिलते हैं तथा पित्त दोष की प्रधानता वाले चर्मकील श्याम वर्ण के ,दुर्गंधित तथा पिच्छिल स्रावयुक्त होते हैं ।
*आयुर्वेद मतानुसार चिकित्सा ::
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आयुर्वेद के अनुसार इसमें आभ्यंतर प्रयोग के लिये ग्रंथि या अर्बुद नाशक योग जैसे
कांचनार गुग्गुल या त्रिफला गुग्गुल का प्रयोग किया जाता है ।कुछ चिकित्सक इसमें शलाकी (Anti inflammatory) तथा हरिद्रा (Antioxidant) के मिश्रण का प्रयोग करते हैं ।इसके अतिरिक्त चूँकि ये व्याधि रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity)के ह्रास के कारण उत्पन्न होती है इसलिए आयुर्वेदिक immunity boosters जैसे आमलकी रसायन, अश्वगंधा चूर्ण आदि के लाभकारी प्रभाव मिलते हैं ।कई शोधकर्ताओं ने उपरोक्त औषधियों के प्रयोग को प्रमाणित भी किया है ।
परन्तु इस रोग के संपूर्ण निवारण के लिए मात्र आभ्यंतर प्रयोग की औषधियों से काम नहीं चलता अतः आयुर्वेद में वर्णित निम्न कर्म (Surgical and Para Surgical ) का आचार्यों ने उल्लेख किया है-
(1 ) लेखन कर्म -
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(A) -चूने (lime) को तूतिया या नीला थोथा (Copper sulphate) में सम भाग मिला कर पेस्ट जैसा मिश्रण बना लेते हैं और इसको इन warts पर और इन warts के stalk पर अच्छी तरह लगा देते हैं और 5 मिनट लगा रहने देते हैं तत्पश्चात् पान के पत्ते के डण्ठल से या किसी मुलायम लकड़ी की शलाका से लेखन कर्म (Scrapping) करते हैं इस विधि में शलाका या पत्ते के डण्ठल से अर्शों की जड़ों को अच्छी तरह से rub करते हैं जिससे यह सब अर्श झड़ जाते हैं ।
(B)- आयुर्वेद में इस लेखन कर्म के लिए चांगेरी के पत्रों का भी प्रयोग उल्लिखित है ।
(2 )- क्षार कर्म-
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प्रतिसारणीय क्षार या क्षार जल का प्रयोग करके भी इन अर्शों को हटाया जाता है ।इसके लिए अपामार्ग क्षार को जल के साथ मिला कर सांद्र (concentrated)पेस्ट बना लिया जाता है और इसका प्रतिसारण इन अर्शों या चर्मकील पर किया जाता है जिससे ये चर्मकील गल कर नष्ट हो जाते हैं,उपरोक्त विधि से ही क्षार जल बना कर भी उपयोग किया जाता है ।
(3 )- क्षार सूत्र बंधन -
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यह सबसे सफल और प्रचलित विधि है,जिस तरह से गुदा के अर्शों को बांधकर (ligation of piles by Kashar sutra) जड़ सहित remove कर दिया जाता है उसी प्रकार इन चर्मकील या त्वचा के अर्शों को क्षार सूत्र से ligate करके remove कर दिया जाता है ।चूँकि यहाँ पर यह अर्श बहुतायत में होते हैं और एक साथ सबको बांधने से रोगी दर्द आदि कष्टों में आ सकता है अतः थोड़ा समय का अन्तराल देकर अलग-अलग चर्मकील समूहों का बंधन अधिक उपयोगी होता है ।
(4 )- अग्नि कर्म -
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ऐसे अर्शों में अग्नि कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है,अग्नि तप्त शलाका से इन चर्मकील या अर्शों के समूहों को संपूर्ण रूप से नष्ट किया जा सकता है और इस विधि के प्रयोग से इनके पुनः उत्पन्न होने की समस्या भी नहीं रहती ।बाद में बने अग्नि दग्ध व्रणों के उपचार में घृतकुमारी (Alovera gel) का प्रयोग करना चाहिए ।
(5 )- शस्त्र कर्म (Surgical removal )-
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यह भी इन चर्मकील समूहों को संपूर्ण रूप से दूर करने की सफलतम विधि है ।इस विधि में स्थानिक संज्ञाहरण का प्रयोग करके इन समूहों का विच्छेदन (Excision) कर दिया जाता है,इसमें भी relapse की संभावना कम रहती है ।
*नोट -*
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सभी प्रकार के उपरोक्त प्रयोगों के पश्चात व्रण बनते हैं जिनका शोधन त्रिफला जल से करना चाहिए और तत्पश्चात् व्रणोंपचार के लिए जात्यादि तैल और हरिद्रा चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए ।
उपरोक्त सभी विधियों का प्रयोग विद्वान् चिकित्सकों को रोगी के बलाबल और देश,काल ,परिस्थिति को ध्यान में रखकर स्वविवेक से करना चाहिए ।
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