आयुर्वेदीय शल्य तंत्र का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महत्व
RELEVANCE OF AYURVEDIC SURGERY IN MODERN ERA ————————————————————————————
- DR. HARISH KAPOOR
- M.S.(Ay)
INSTITUTE OF MEDICAL SCIENCES
( B.H.U.)
अभी हाल में ही देश में आयुर्वेद में शल्य तंत्र के परास्नातकों को शल्य कर्म करने संबंधित एक बिल पास होने से भारतीय चिकित्सा संकाय में एक भूचाल सा आया हुआ है,यद्यपि बहुत पहले से ही आयुर्वेद के शल्य कर्मियों को परा स्नातक स्तर की शिक्षा में बिल में वर्णित शल्य कर्म सिखाये जा रहे थे और उनका चिकित्साभ्यास करने की परमीशन भी थी परन्तु सरकार की तरफ से कभी भी स्थिति को स्पष्ट नहीं किया गया जिसकी वजह से अधिकांशतः यह शल्य कर्म विभिन्न आयुर्वेदीय स्नातकोत्तर संस्थानों तक ही सीमित रहे ।हाल में ही कोरोना काल में Modern Medicines की कोरोना वायरस के प्रति अक्षमता ने और आयुर्वेदीय औषधियों की चमत्कारिक सफलता ने जनमानस के साथ-साथ सरकार को भी आयुर्वेद के उपादेयता पर सोचने को बाध्य कर दिया ।इस प्रकरण में आयुर्वेद के चिकित्सकों के द्वारा दूर दराज इलाक़ों तक में की गयी सेवा और फ्रंट लाइन वारियर की तरह किये गये कार्य नें सरकार को जनहित में आयुर्वेद के बारे में सोचने को बाध्य कर दिया ।सुखद परिणाम के रूप में संशोधित चिकित्सा बिल पास हुआ है और आशा है कि प्रारंभिक आपदाओं को पार करते हुये हमारे चिकित्सक स्वयं का और आयुर्वेद का परचम लहरायेंगे ।
जिन साथियों को,जनता को आयुर्वेद की शल्य कर्म संबंधी क्षमताओं पर तनिक भी संशय है,उनके लिए मैं यह आलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ और आशा करता हूँ कि यह आलेख काफी हद तक आपके सभी संशयों का समाधान कर देगा ।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ दशकों में Surgery ने आश्चर्यजनक रूप से Progress की है और अब ऐसे ऐसे Operations किये जा रहे हैं जिनकी कल्पना भी कुछ वर्ष पूर्व नहीं की जाती थी , परन्तु यदि हम आधुनिक Surgery के इतिहास पर नज़र डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि 18 th Century तक पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली में Surgery को काफ़ी महत्व नहीं दिया जाता था और तब तक केवल Barbers (नाई) ही Casual Surgery किया करते थे ।यहाँ तक कि 4th Century B.C. में Father of Modern Medicine HIPPOCRATES ने Medical Practitioners को Surgery करने से स्पष्ट रूप से मना किया था ।
इसके ठीक विपरीत Ancient Indian Medicine आयुर्वेद में Surgery यानि शल्य कर्म को न केवल प्रारंभ से ही आष्टांग आयुर्वेद में सम्मिलित रखा गया अपितु आयुर्वेद के आठों अंगों में शल्य चिकित्सा को सर्वोत्तम माना गया ।यथा—
“अष्टास्वपि चायुर्वेद तन्त्रेष्वेत देवाधिकमभिमतम् ,
आशुक्रिया करणान्त्र शस्त्रक्षाराग्नि प्राणिधानात् सर्वतन्त्र सामान्याच्च ।।”
सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ के रचयिता आचार्य सुश्रुत ने अपने ग्रंथ में उस समय की Surgical Problems का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है तथा आवश्यक शल्य कर्मों का कहीं पर सूत्र रूप में और कहीं पर विस्तार से उपदेश किया है ।यद्यपि इस ग्रंथ की रचना का ठीक समय बताना कठिन है परन्तु चूँकि आचार्य सुश्रुत को 500 B.C.पूर्व का माना जाता है अत: निश्चित है कि यह ग्रंथ शल्य शास्त्र या Surgery की प्राचीनतम Text Book है ।
आचार्य के अनुसार शल्य तंत्र चिकित्सा के सभी अंगों में अत्यंत उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है अत: इसके लिए विद्यार्थियों का चयन,उपनयन,शिक्षण तथा अभ्यास बड़े ही तरीक़े से करना -कराना चाहिए जिससे कि उत्तम शल्य चिकित्सक (Surgeons) तैयार हो सकें ।महर्षि सुश्रुत ने स्वयं Surgeon होने के कारण विषय के Theoretical aspect के साथ साथ उसके Practical aspect की तरफ बहुत अधिक ध्यान दिया है ।उनका कहना है कि —-
“ यस्तु केवल शास्त्रज्ञ: कर्म स्वपरिनिष्ठित: ।
स मुह्यत्यातुरंप्राप्य भीरूरिवाहवम् ।।”
अर्थात् जो व्यक्ति शल्य शास्त्र की केवल Theoretical Knowledge रखता है परन्तु उसकी Practical Knowledge पर ध्यान नहीं देता अर्थात् कर्माभ्यास नहीं करता वह रोगी के पास जाकर उसी प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है जिस प्रकार कोई कायर युद्ध क्षेत्र में पहुँच कर डर जाता है ।इसके विपरीत जिस शल्यक को Theory के साथ साथ विषय की Practical Knowledge भी होती है वह दोनों पहियों वाले रथ के समान विजय श्री का वरण करता है ।अपने इसी कथन की पुष्टि के लिए आचार्य ने शल्य (Surgery) के छात्रों को Experimental Surgery (योग्या ) करने का निर्देश दिया है ।उन्होंने ने “योग्या सूत्रीय अध्याय “ में Experimental Surgery की Practical Training के विविध उपाय बताये हैं ।सुश्रुत संहिता का यह अध्याय Experimental Surgery के आयुर्वेदीय Concept को प्रदर्शित करता है जिसमें छात्र जीवित शरीर के अलावा अन्य विभिन्न वस्तुओं पर छेदन,भेदन,वेधन,सीवन आदि विभिन्न Surgical Procedures का कर्माभ्यास करते थे ।इतना ही नहीं आचार्य छात्रों को Surgeons के रूप में Train करने के बाद भी उनसे निरन्तर अध्ययन तथा कर्माभ्यास करते रहने को कहते हैं क्योंकि इन सबसे Surgeon में आत्मविश्वास जागृत होता है तथा उसकी दक्षता बढ़ती है ।यथा—
“वाक सौष्ठवेअर्थ विज्ञाने प्रागल्भ्ये कर्मनैपुणे ।
तद्भ्यासे च सिद्धौ च यतेताध्ययनान्तग: ।।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्तमान में व्यवहार में लायी जाने वाली आधुनिक शिक्षण / प्रशिक्षण पद्धति का उपयोग बहुत पहले ही शल्य के आचार्यों ने अपने छात्रों पर किया था और उन्हें एक उत्तम शल्यक बनाया था ।इस Concept को “Training of Surgeons in Ancient India “
के नाम से कई बार विदेशी Journals में भी प्रकाशित किया जा चुका है और यह वर्तमान सन्दर्भ में आयुर्वेदीय शल्य शास्त्र की महत्ता को प्रदर्शित करता है ।
अब हम मुख्य विषय को देखें तो पायेंगे कि आजकल जो भी आधुनिकतम Surgery हो रही है वह सभी हमारे प्राचीन शास्त्रों में सूत्र रूप से या विशद रूप से वर्णित है ।शल्य शास्त्र का अध्ययन एवं मनन करने से पता चलता है कि आज की आधुनिकतम Surgery के सिद्धांतों (Fundamental Principles) का जैसा सटीक वर्णन इन प्राचीन शल्य ग्रंथों में है वैसा अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हो सकता ।सर्वप्रथम हम आजकल बहुचर्चित आधुनिकतम Plastic Surgery की चर्चा करते हैं ।
यदि Plastic Surgery के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह अधिक पुराना नहीं है ।Modern Surgery के लिए 4th से 14th Century तक का समय Dark Age माना जाता है ।उस समय जर्मन आर्मी में Barbers (नाई )और ब्रिटिश आर्मी में Drum beaters (ढोलची) Surgeons का काम करते थे ।सबसे पहले 14th Century में सिसली के दो जूते का काम करने वाले भाइयों Bankers Brothers ने Plastic Surgery की शुरुआत की ।उन्होंने यह कला सिसली में जूतों का व्यापार करने पहुँचे कुछ भारतीय व्यापारियों से सीखी थी ।
Taigliocosy जो कि Italy की Balona University में Anatomy के प्रोफ़ेसर थे,उन्होंने Banker Brothers को देखकर उनके कार्य में कुछ सुधार लाकर वास्तविक Plastic Surgery की शुरूआत की और बाद में वह Father of Plastic Surgery के रूप में विख्यात हुये ।यह बात Italy की Balona University में लिखित Record के रूप में मौजूद है ।दुर्भाग्यवश Tagliocosy को पादरियों और धर्माधिकारियों ने बहुत प्रताड़ित किया और कहा कि वह ईश्वर की गतिविधियों में हस्तक्षेप न करे ।उन्होंने Tegliocosy का सामाजिक बहिष्कार कर दिया और जब उनका देहान्त हुआ तो उनकी Dead body को कब्र से बाहर निकलवा कर टुकड़े टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिया गया ।एक Plastic Surgeon का ऐसा हश्र देखकर Plastic Surgery का कार्य पूर्णरूपेण बन्द हो गया और फिर 14th से 17th Century तक इस विषय पर कोई कार्य नहीं हुआ ।
17th Century के अंतिम चरण सन 1784 में Madras gazette में एक घटना publish हुई,जिसका प्रकाशन Tomes and James नाम के दो English पत्रकारों ने कराया था ।इस प्रकाशन के अनुसार —
Cobusgy नाम के एक चोर को जो कि British Army की पूना रेजिमेंट में Bullock cart Driver था , King Teepu Sultan ने चोरी के अपराध में हाथ और नाक काटे जाने का दण्ड दिया ।बाद में उस चोर की शल्य चिकित्सा वहीं के एक स्थानीय जूते बनाने वाले ने की और Cobusgy नामक वह चोर स्वस्थ हो गया ।सन 1792 में एक British Journalist भारत आया और मद्रास गजेट के इस Publication को पढ़ कर बहुत प्रभावित हुआ और वापिस अपने देश पहुँचने पर उसने इस घटना का प्रकाशन वहाँ कि प्रख्यात पत्रिका Gentlemen Magazine में कराया ।Jocep Cerby जिन्हें Modern Plastic Surgery का Father माना जाता है उन्होंने सन 1810 में इसका पुनः प्रकाशन Royal Journal of Surgeons में कराया तथा स्वयं Indian Method of Rhinoplasty (सुश्रुत संहिता में वर्णित नासा संधान विधि ) के अनुसार Forehead का Flap लेकर अनेक नाकों की repair (Rhinoplasty) की ।इस विधि को Pedical graft method भी कहा जाता है ।यहाँ यह स्मरण रहे किPlastic Surgery की Pedical graft विधि आचार्य सुश्रुत की ही देन है जिसे आज भी Indian method of Skin Grafting कहा जाता है ।
19th Century में Junagarh State के Surgeon (शल्यक ) त्रिभुवन दास विक्रम शाह ने 200 Rhinoplasty कीं ।उनके बारे में कहावत थी कि -
“कालू कापे सांधे त्रिभुवनदास “
वस्तुतः कालू नामक एक डाकू आभूषणों के लिए राहगीरों के नाक कान काट लेता था और ऐसे रोगी शल्य चिकित्सा के लिए त्रिभुवनदास के पास ही आते थे ।उपरोक्त सभी तथ्यों के प्रमाण आज भी राष्ट्रीय अभिलेखागारों के records में मौजूद हैं ।
सन 1972 में विभिन्न Surgeons ने 3000 Rhinoplasty कीं और पाया कि सुश्रुतोक्त विधि से Forehead Flap लेकर Grafting करना Best Method है ।Italy में Arm की Skin का Flap लेकर Rhinoplasty की गई पर उसमें पाया गया कि Sun के Exposure से नाक का वह भाग काला हो गया तथा उसमें Hairs भी उत्पन्न होने लगे ,अत: यह “Italian method “discard कर दिया गया ।
सुश्रुत ने “कर्ण बन्धन “ अध्याय में कान की Repair (Ear Plasty) ,नाक की Repair (Rhinoplasty) तथा Cleft Lip या Hair Lip के Plastic Operations का सर्वांगीण वर्णन किया है ।Rhinoplasty का Description सुश्रुत के इस अध्याय की विशेषता है और आचार्य सुश्रुत द्वारा वर्णित यह विधि आजकल Indian method of Rhinoplasty के नाम से आधुनिक Surgery की Textbooks में उल्लिखित है ।यद्यपि Rhinoplasty के French और Italian method भी विकसित हुए परन्तु विभिन्न दुष्परिणामों की वजह से वे प्रचलित नहीं हुये और अब केवल Indian method ही प्रचलन में है ।
एक अत्यंत प्रसिद्ध इतिहासकार Dr. New werser के अनुसार —
“The Plastic Surgery of today is mere development of principles which are led by ancient Indian Surgeons.”
आधुनिक और प्राचीन Plastic Surgery के बारे में अभी बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु आयुर्वेदीय शल्य तंत्र की महत्त मात्र इसी एक उदाहरण की मोहताज नहीं है ।
Emergency Surgery का भी विशद वर्णन सुश्रुत संहिता में उपलब्ध है ।।
सुश्रुत संहिता में आचार्य सुश्रुत ने Intestinal Obstruction का बद्ध गुदोदर और Intestinal Perforation का परिस्रावी उदर नाम से उल्लेख किया है और उसमें शल्य क्रिया का विशद वर्णन किया है ।आचार्य सुश्रुत ने“उदर रोग चिकित्सीय अध्याय “में लिखा है—-
“बद्ध गुदे परिस्राविणी च स्निग्ध स्विन्न स्याभ्यक्तस्याधो नाभेवार्भतश्चतुरड्गुलमपहाय रोम राज्या उदरं पाटयित्वा चतुरड्गुल प्रमाण....................आदि आदि ।
उपरोक्त श्लोक में आचार्य सुश्रुत ने बद्ध गुदोदर और परिस्रावी उदर के लिए शल्य कर्म का वर्णन किया है ।आचार्य सुश्रुत के अनुसार—
बद्ध गुदोदर में तथा परिस्रावी उदर में रोगी को स्नेहन,स्वेदन देकर नाभि के नीचे अभ्यड्ंग करके नाभि के वाम पार्श्व में रोम राजि से चार अंड्गुल बचाकर [अर्थात् Median line से चार अंगुल पार्श्व में (Paramedian Incision )] ,चार अंगुल उदर को चीरकर,आँतों को निकाल कर (Explorative Laparotomy ) बद्ध गुद में आँत को रोकने वाले पत्थर,बाल ,मल (Faecolith) या अन्य किसी obstructing material को देख कर उसे दूर करके ,घी और मधु से आँतों पर अभ्यड्ंग करके (आजकल Normal Saline से wash करते हैं ) ,आँतों को ठीक से यथा स्थान बिठा कर उदर के बाह्य व्रण को सी देना चाहिए ।परिस्रावी उदर में भी यही विधि अपनाते हैं और Perforation करने वाले शल्य (Cause of Perforation )को निकाल कर आँतों को सीकर पूरी उपरोक्त विधि से उदर बन्द कर देते हैं ।
आधुनिक Orthopaedic Surgery की विभिन्न शल्य क्रियायों का भी सुश्रुत संहिता में विशद वर्णन है ।आचार्य सुश्रुत ने Fracture और Dislocation का क्रमशः अस्थि भग्न एवं संधि मुक्त नाम से उल्लेख किया है ।इन दोनों ही स्थितियों में चिकित्सा के जो सिद्धांत सुश्रुत संहिता में वर्णित हैं,उनसे अधिक हम अब भी कुछ विशेष नहीं करते ।यह तथ्य निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट हो जाता है—-
“अवनामितं उन्नह्येदुन्नतं चावपीड़येत ।
आच्छेदतिक्षिप्तमधो गतं चोपरि वर्तयेत् ।।
आंच्छनै: पीड़नैश्चैव संअ्क्षेपै्र्बन्धनैस्तथा ।।।
अर्थात् Depressed Fracture should be elevated and the elevated should be pressed down.Widely separated fractured ends should be brought near by traction and that which has gone in deep,should be brought out superficially.
The wise Surgeon should reduce all the moveable and non moveable dislocated joints of the body by the methods of reduction as traction,pressure,compression and bandaging.
क्या सामान्य orthopaedic treatment में सुश्रुत के उपरोक्त Fundamental principles से कुछ हटकर किया जा रहा है ??
अब मैं सामान्य शल्य कर्म यानी General Surgery से हटकर Specific Surgery जैसे ENT Surgery की बात रखूँगा ।आयुर्वेद में इस संबंध में इतना विशद वर्णन है कि अष्टांग आयुर्वेद का एक पूरा अंग “शालाक्य तंत्र “इसको समर्पित है ।
शालाक्य तंत्र में विभिन्न नेत्र व्याधियों में जिन Surgical Procedures का वर्णन मिलता है लगभग वही या उससे मिलते-जुलते शल्य कर्म (Operations ) आज भी किये जा रहे हैं ।उदाहरणार्थ पक्ष्मकोप जिसे आजकल Trchiasis/Districhiasis/Entropion कहते हैं ,की चिकित्सा में आचार्य सुश्रुत ने दो शल्य कर्म बताये हैं ।उत्तर तंत्र के सोलहवें अध्याय में आचार्य लिखते हैं—
“याप्यस्तु यो वर्त्मभवो विकार: ,
पक्ष्मप्रकोपाअ्भिहित: पुरस्तात ।”
......................आदि आदि ।।
उपरोक्त श्लोकों के अनुसार —
पक्ष्मकोप नामक पलकों के रोग में उप पक्ष्ममाला के परिमाण में वर्त्म (Eye lid ) के ऊपर यव (जौ ) के आकार में चर्म काट कर निकाल देना चाहिए और फिर सीवन कर्म कर देना चाहिए ।
तत्पश्चात् इस सीवन सूत्र को माथे पर एक पट्टी बांध कर उसके साथ सी देना चाहिए तथा कुछ समय पश्चात व्रण के रोपित (Heal ) हो जाने पर काट देना चाहिए ।
पक्ष्मकोप में शल्य कर्म की यह विधि आधुनिक Surgeons की “Excision of the Tarsus “ प्रतीत होती है ।इस शल्य कर्म के अतिरिक्त एक अन्य शल्य कर्म भी आचार्य ने इस व्याधि के उपचार के लिए बतायी है जो कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में “Epilation of Cilia” के नाम से प्रचलित है ।आचार्य सुश्रुत लिखते हैं —-
“छित्वा समं वाअ्प्युपक्ष्म मालां सम्यग्गृहीत्वा
बडिशौस्त्रभिस्तु ।।”
अर्थात् बालों की जो नई पंक्ति पैदा हो गई है उसे तीन बडिशों (Forceps ) की सहायता से भली प्रकार पकड़ कर निकाल दें ।
इसी प्रकार लिंगनाश (Cataract ) में भी आचार्य सुश्रुत द्वारा वर्णित शल्य कर्म आज भी प्रचलित है ।नेत्र के अलावा मुख,कान और दांत के रोगों में भी सुश्रुत ने अनेकानेक शल्य कर्मों का विशद उल्लेख किया है ।यह सभी शल्य कर्म थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ आज भी ENT Surgeons तथा Dental Surgeons द्वारा किये जा रहे हैं ।
मुख्य शल्य कर्मों के अतिरिक्त आधुनिक Para Surgical Procedures को देखें तो हम पाते हैं कि आजकल का venesection Procedure प्राचीन काल में रक्तमोक्षण नाम से उल्लिखित है और यह विधा आयुर्वेद की चिकित्सा में अपना एक विशेष स्थान रखती है,इसके द्वारा आयुर्वेद में कई गंभीर व्याधियों की चिकित्सा की जा रही है ।इस विधि की महत्ता यहीं से पता चलती है कि आचार्य सुश्रुत ने इसको पंचकर्म चिकित्सा में सम्मिलित किया है ।इसके अतिरिक्त आजकल की जाने वाली Electrical या Thermal Cautery पूर्व के अग्नि कर्म से साम्य रखती है ।आयुर्वेद की यह विधा व्रण चिकित्सा के साथ साथ अनेकानेक वात रोगों के शमन के लिए बहुत प्रसिद्ध है ।इसी प्रकार आजकल की जाने वाली Chemical Cautery पूर्व की क्षार चिकित्सा से सामंजस्य रखती है ।क्षार चिकित्सा का अब जो उपयोग क्षार सूत्र चिकित्सा के रूप में विभिन्न गुदा रोगों (Ano rectal disorders ) में किया जा रहा है वो तो एक स्वर्णिम इतिहास बन चुका है ।Ano rectal disease विशेषतः भगन्दर (Fistula in ano) , अर्श (Piles) और नाड़ी व्रणों (Sinuses for eg. Pilonidal sinuses ) सिर्फ़ क्षार सूत्र चिकित्सा ही आशुकारी और लाभकारी सिद्ध हो रही है तथा इसी वजह से देश के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान AIMS में भी उक्त रोगों की चिकित्सा आयुर्वेदीय क्षार सूत्र से ही की जा रही है ।
जहां तक आयुर्वेदीय शल्य चिकित्सा के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महत्व की बात है वह मेरे पूरे लेख के विवेचन से स्पष्ट है पर यदि फिर भी हम विषय को समेटना चाहें तो कह सकते हैं कि वर्तमान में Surgery का जो आधुनिकतम स्वरूप देखने को मिल रहा है वह सभी ,आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णित है ।कहीं पर उसका वर्णन विशद और स्पष्ट है और कहीं-कहीं पर वह सूत्र रूप में वर्णित है ।
आचार्यों ने शायद उस समय लोगों के ज्ञान के अनुसार उन सूत्रों को ज़्यादा विस्तार से लिखना आवश्यक नहीं समझा होगा पर अब हमें उन सूत्रों का भी विवेचन करना है,मनन करना है तथा आधुनिक विज्ञान का उपयोग करके सम्पूर्ण विश्व को यह बताना है कि आयुर्वेद कोई परम्परागत चिकित्सा पद्धति नहीं है अपितु वह भी एक विज्ञान है,विधा है जिसके और अधिक Exploration की ज़रूरत है ।
आजकल बहुत कहा जा रहा है कि यदि आपको Surgery करनी है तो आप अपने शास्त्र में वर्णित यंत्रों से करो या बिलकुल उसी विधि से करो जैसा कि उसमें वर्णन है,घोड़े के बाल से Suture करने को लिखा है तो उसी से करो ,X ray क्यों करवाते हो ? आदि आदि ।
ऐसे प्रश्न कर्ताओं से नम्र निवेदन है कि आप यह क्यों नहीं सोचते कि आधुनिक Surgery का भी यह स्वरूप Hippocrates के समय नहीं था (मेरी पहली पोस्ट में आधुनिक Surgery का इतिहास अवश्य देखें ) ,आज जैसे यंत्र-शस्त्र तथा Diagnostic Aids भी तब नहीं थे ।वस्तुतः यह विज्ञान ( Physics तथा Chemistry ) है जिसकी वजह से Medical Science इतना आगे बढ़ी है पर शल्य कर्म के सिद्धांत ( Fundamental Principles ) वही हैं ।अतः आयुर्वेद के विकास के लिए इसी विज्ञान के इस्तेमाल के लिए आपको शिकायत क्यों और किसलिए ??
समय की माँग है और कोरोना काल ने यह सिद्ध भी कर दिया है कि *स्वस्थ भारत * के निर्माण के लिए आयुर्वेद की महत्वपूर्ण भूमिका है । मैं अपने आयुर्वेदिक चिकित्सकों का आह्वान करता हूँ कि आप भी बढ़िए और आधुनिक कसौटी पर अपने चिकित्सा सिद्धांतों को कस कर वह कर दिखाइये कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में न केवल शल्य शास्त्र की अपितु आपके संपूर्ण आयुर्वेद की महत्ता स्वयं सिद्ध हो जाये ।
जय भारत जय आयुर्वेद !!
Get latest news about our clinics performance weekly on our website. healingatayurveda.in
Copyright © 2019 healingatayurveda.in. All Right Reserved.
Share This News